पाठको, मैं अपनी कहानी शुरू करने से पहले आपको अपने बारे में कुछ बता दूँ क्योंकि मैं काफी समय से अपने काम में व्यस्त था और कोई कहानी नहीं लिख पाया जिससे आप लोग शायद मुझे भूल भी गए होंगे। मुझे ढेरों ईमेल मिले जिसके लिए मैं आप सभी लोगों का आभारी हूँ और सहृदय धन्यवाद करना चाहता हूँ।
मेरा नाम विंश शांडिल्य है और मैं दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत हूँ, मेरी उम्र 36 साल की है, मेरा क़द 6 फिट है और मेरा रंग गेंहूआ है, मेरा शारीरिक अनुपात एक खिलाड़ी जैसा है और मेरे लिंग की लंबाई 6.5 इंच और मोटाई 2.5 इंच है। कहने को तो ये सामान्य है मगर किसी को संतुष्ट करने के लिए प्रतिभा/अनुभव की ज़रूरत होती है न की लंबाई और मोटाई की।
मुझे सेक्स में बहुत रुचि है और मुझे सेक्स करने में बहुत मजा भी आता है खास कर भाभियों के साथ जिनकी उम्र 25 से 40 के बीच में हो। और मैंने कई भाभियों के साथ सेक्स किया भी है। मुझे काफी औरतों या यों कहिए भाभियों ने मेरी कहानी पढ़ने के बाद मुझसे संपर्क किया और उसके बाद मैंने उनकी भूख भी शांत की और हम दोनों ने खूब मजा भी किया।
उनमें से कई भाभियों से मैं आज भी संपर्क में हूँ लेकिन हमेशा मिलना संभव नहीं हो पाता। मुझे भाभियों के साथ सेक्स में सच में बहुत मजा आता है क्योंकि जो बात उनमें होती है वो किसी और में कहाँ।
एक तो उनका भरा भरा या गदराया बदन, उनकी कामुक अदा, उनकी कत्ल कर देने वाली निगाहें, दिल को चीर देने वाली हंसी, काम वासना से लबरेज उनकी इच्छाएँ, किसी को पागल कर देने में कोई भी कसर न छोड़ने वाला हौसला, टूट कर चाहने की हसरत, बिस्तर में जंगली बिल्ली बनने की ख्वाहिश और चूत में अंदर तक घुसवा कर चुदने की कसक, इसके अलावा और भी बहुत सारी चीजें हैं जो पूरी लिखने बैठ गया तो पूरी कहानी उनके तारीफ में ही खत्म हो जाएगी।
यही कारण है कि मैं हमेशा भाभियों को चोदने के लिए व्याकुल और लालायित रहता हूँ और अगर कोई भाभी मिलती हैं तो मैं उनको खुश करने और जम के चोदने में कोई कसर भी नहीं छोड़ता। आज भी मेरी कई भाभियों से बात होती है और आज भी मौका मिलने पर मैं उनको जम के चोदता भी हूँ। उनमें से एक दो भाभियों की तो मैंने गोद भी हरी की है उनको बच्चा देकर।
चलिये अब आपका ज़्यादा समय न बर्बाद करते हुये मैं अब सीधे अपनी कहानी पर आता हूँ जो मेरी ज़िंदगी का सबसे हसीन अहसास है और जो अब तक मैंने अपने अंदर ही छिपा कर रखा था लेकिन आज आप सभी के साथ साझा करना चाहूँगा।
तो यह घटना आज से चार साल पहले की है जब मैं दिल्ली में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत था. वहीं मेरी मुलाक़ात उससे हुई जो मेरे दिल में, मेरे दिमाग में, मेरे नसों में इस तरह समाई कि मैं बस उसका ही होकर रह गया।
बात दिसम्बर के सर्दियों की है, जब मैं ऑफिस से निकल कर अपने कैब का इंतज़ार कर रहा था और साथ ही साथ धुएँ को अपना साथी बनाए हुए था. तभी एक बहुत ही मादक और सुरीली आवाज़ ने मुझे दस्तक दी.
मैं तो एकदम स्तब्ध उसे देखते ही रह गया, क्या करिश्मा था कुदरत का, एक 23 या 24 साल की अदम्य सुंदरता की मूरत मेरे सामने खड़ी थी. वह शायद मुझसे कुछ पूछना चाहती थी. मगर मेरी हालत देख कर वो भी चुपचाप वही खड़ी हो गयी.
हमारी चुप्पी तब टूटी जब मेरी धुएँ की डंडी ने मेरी उंगली जलायी, तब मैंने अपने आप को सामान्य किया और उससे पूछा- जी बताइये?
वो कुछ समझ नहीं पायी और वहीं खड़ी रही.
शायद वो भी मेरे साथ ही मेरे कैब में जाने वाली थी और वो उसी के बारे में जानना चाहती थी।
खैर तभी हमारी कैब हमारे सामने आकर रुकी और हम उसमें बैठ गए. क्या संयोग था किस्मत का कि वो वहाँ भी मेरे बगल में ही बैठी थी और उसके शरीर की मादकता मुझे मदहोश कर रही थी, मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पा रहा था क्योंकि कैब में और भी लोग थे और दूसरा कहीं वो बुरा न मान जाए।
मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि ये मेरा प्रेम है उसके लिए या काम वासना। वैसे भी काम और प्रेम दोनों तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उस दिन मेरा सफर इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गया मैं समझ नहीं पाया. कैब से उतरकर घर चला गया और दूसरे दिन का इंतज़ार करने लगा कि कब शाम हो और उससे मुलाक़ात हो।
पहली ही मुलाक़ात में उसका ऐसा नशा मुझपे चढ़ा था कि मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। बस उसी की याद आ रही थी. हर पल उसका एक एक अंग, उसकी एक एक अदा मुझे उसकी याद दिला रही थी।
उसका शरीर 34-26-36, रंग ऐसा जैसे दूध में हल्का सा केसर डाला हो, काले बाल जैसे बादल की घटा, नीली आँखें जैसे झील की गहराई और उसके होंठ, ऐसा लग रहा था जैसे भगवान ने उसके होंठ की जगह पर गुलाब की पंखुड़ियाँ ही लगा दी हो। पूरी की पूरी अप्सरा थी वो, अप्सरा ही तो थी वो क्योंकि ऐसी सुंदरता मनुष्यों के पास नहीं होती, और अगर कोई भी मनुष्य उसे देख ले तो या तो पागल हो जाए या अपना आपा ही खो दे, उसको पाने की ऐसी चाहत की सभी मर मिटें।
अब तक मैं इसे प्रेम ही कह सकता हूँ कि अभी तक मेरे मन में उसके लिए कोई भी वासना का ख्याल नहीं था.
खैर फिर वो शाम आ ही गयी जिसका मुझे इंतज़ार था। कैब का कॉल आया और मैं घर से बाहर आ कर सड़क पर खड़ा होकर इंतजार करने लगा. तभी मेरी कैब भी आ गई और मैंने आगे बढ़ कर जैसे ही दरवाजा खोला और वहीं खड़ा का खड़ा रह गया … बिलकुल स्तब्ध जैसे साँप सूंघ गया हो!
क्या लग रही थी पीले रंग के सलवार कुर्ते में, हल्का गुलाबी लिपस्टिक, थोड़े सीधे पर लरजते बाल, नीली आँखें और उनमें एक पतली लकीर काजल की, पैर ऐसे जैसे ज़मीन पर रखने के नाम से ही गंदे हो जायें … हाथ में एक ब्रेसलेट; अगर वो उस वक़्त मेरी जान भी मांगती तो मैं हंसी खुशी दे देता!
खैर तभी वो हंसी और कहा- बाहर ही रहना है क्या? हम लेट हो रहे हैं।
मैंने कैब का दरवाजा बंद किया और बैठ गया और पूरे रास्ते बस उसी के बारे में सोचता रहा कि काश ये मेरी हो जाए और मैं उसमें समा जाऊँ, उसे अपनी बना लूँ, उसे जब चाहे प्यार करूँ और जब जी चाहे बातें, बस उसके ही पास और उसके ही साथ ज़िंदगी खत्म हो जाए।
क्या सुखद अनुभूति होती है जब किसी को किसी से प्यार होता है, आशा करता हूँ मेरे सभी पाठकों को कभी ना कभी प्यार तो हुआ ही होगा।
कई दिन निकल गए बस ऐसा ही चलता रहा और मुझे उसका नाम तक पता नहीं चल पाया. हिम्मत ही नहीं होती थी कि उससे पूछूँ … और वो थी कि किसी से भी बात नहीं करती थी।
फिर अचानक एक दिन ऐसा हुआ कि लगा सब कुछ खत्म … उसका आना ही बंद हो गया.
मुझे लगा कि उसने नौकरी छोड़ दी.
मैंने उसके डिपार्टमेंट में पता लगाने की कोशिश भी की पर कुछ भी पता नहीं चला और अब तो ये आलम हो गया था कि मैं भी उसे भूल जाऊँ और फिर हमेशा की तरह अपनी जिंदगी में मस्त हो जाऊँ.
पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था … एक दिन अचानक ऐसा हुआ जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. वो मुझे एक मार्केट में दिख गयी, वो अकेली ही थी शायद और कुछ समान लेने आई थी. इत्तेफाक से मैं भी वहीं अपने लिए शॉपिंग करने गया था. मैं अपने लिए वहाँ कपड़े देख रहा था.
तभी मैंने देखा कि वो अपने घर के लिए कुछ सामान ले रही थी और अचानक से उसकी नज़र मुझ पर पड़ गयी.
उसने मुझे हैलो किया.
लेकिन मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वो मुझे हैलो कर रही है.
फिर वो मेरे पास आई.
मैंने भी जवाब में उसे हैलो किया.
उसने बताया कि उसकी शिफ्ट टाइमिंग बदल गयी है.
तब जाकर मेरी जान में जान आई।
अभी हम बातें ही कर रहे थे कि उसने मुझे कॉफी ऑफर किया और हम वहीं बगल में एक कॉफी शॉप में चले गए.
फिर जो हमारी बातों का दौर शुरू हुआ … रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. दो घन्टे निकल गए उसी कॉफी शॉप में!
करीब डेढ़ महीने बाद जाकर मुझे उसका नाम पता चला, जैसी वो वैसा ही उसका नाम था उपासना। जैसी उसमें एक अलग सी कशिश थी वैसा ही उसके नाम में था। मुझे तो बस ऐसा लग रहा था कि सुबह, शाम, रात, दिन बस उसी कि उपासना करूँ।
अब हमारे अलग होने का समय आ गया था, उसने चलने को कहा. मेरा मन उससे अलग होने का नहीं हो रहा था लेकिन मजबूरी भी थी.
मैंने पैसे दिये और हम साथ साथ बाहर आ गए.
उसने बताया कि वो इसी मार्केट से थोड़ी सी दूरी पे रहती है अकेली एक रूम लेकर।
फिर उसने विदा ली और चलने लगी. जैसे ही वो दो कदम चली होगी, मुझे एक बेचैनी सी महसूस हुई कि शायद अब हम नहीं मिल पाएंगे.
और मैंने उसको कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से ही पुकार लिया.
वो वहीं रुक गयी और मुड़ कर मुझे देखा, मेरे पास आई और ज़ोर से हंसी।
“ये तुम्हारा चेहरा उड़ा उड़ा सा क्यों लग रहा है?” उसने पूछा.
मैंने अपने चेहरे की घबराहट छुपाते हुए उससे कहा- कुछ नहीं!
पर शायद वो जान चुकी थी, उसने तुरंत ही कहा- मेरा नंबर ले लो, फिर हम फोन पे बातें करते हैं.
उसने मुझसे फोन नंबर एक्स्चेंज किया और चली गयी.
मुझे तो ऐसा लगा मानो मैंने दुनिया ही जीत ली। मैं बहुत खुश था.
उसका नंबर मिलते ही सबसे पहले चेक किया कि वो व्ट्सऐप पर है या नहीं.
और वो थी वहाँ!
मैंने जैसे ही उसका प्रोफ़ाइल देखा, एक मैसेज भेज दिया हैलो का।
तुरंत ही उसका जवाब आया और उसने कहा कि वो मेरे ही मैसेज का इंतज़ार कर रही थी.
अब तो मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा.
फिर शुरू हुआ हमारी बातों का सिलसिला और हम कभी मैसेज में तो कभी फोन पे घंटों बातें करने लगे. उसने बताया कि यहाँ वो अकेले ही रहती थी. उसका होम टाउन उसने हिमाचल बताया. और ये भी बताया कि यहाँ उसके ज़्यादा दोस्त भी नहीं हैं.
यही बात मेरा प्लस पॉइंट हो गयी उसे पाने के लिए।
अब बारी थी हमारे मिलने की … हमने एक जगह और समय प्लान किया और इंतज़ार करने लगे उस दिन का जिस दिन हमें मिलना था।
वो दिन भी आ गया और हम मिले. वो मिलना मेरी ज़िंदगी का सबसे खास लम्हा बन गया.
हुआ यूं कि जैसे ही उसने मुझे देखा वो दौड़ कर आई और मेरे गले लग गयी जैसे वो बरसों से मुझे जानती हो और ऐसे ज़ोर से लिपटी कि करीब दस मिनट तक वो ऐसे ही रही.
मैंने महसूस किया कि उसकी पकड़ थोड़ी ज़्यादा ही टाइट थी और साँसें उखड़ी और मदहोश!
हम फिर अलग हुए और फिर एक रेस्तौरेंट में चले गए। उस दिन वो क्या कयामत लग रही थी; उसने उस दिन स्लीवलेस ब्लू कलर का फ्रॉक और उसी से मैचिंग सारी चीजें पहनी हुई थी।
एक तो गोरा बदन और उस पर नीला ड्रेस, नीली आँखें, नीला सैंडल, नीला ब्रेसलेट और एक और बात उसने अपने बाल के कुछ हिस्से भी नीले रंग से कलर कराये थे, पूरी की पूरी क़ातिल लग रही थी वो उस दिन! जो भी उसे देखता बस देखता ही रह जाता।
उस दिन उसे देखकर मुझे पहली बार यह महसूस हुआ कि यही वो सपना है जिसे मैं आज तक ढूंढ रहा था और आखिरकार भगवान ने मुझे आज इसे दे ही दिया।
काफी देर हम एक दूसरे से बातें करते रहे और फिर मुझे लगा जैसे अब कहीं वो जाने के लिए न बोल दे.
तो मैंने उसे कहा- चलो मूवी देखते हैं.
उसने घड़ी देखी, अभी शाम के 5:30 हो रहे थे; उसने कहा- मूवी देखने में कोई प्रोब्लम नहीं है. पर मुझे मूवी देखना पसंद नहीं है. लेकिन हाँ अगर तुम कहो तो कहीं पार्टी करते हैं।
मैंने आश्चर्यचकित भाव से उससे पूछा- कहाँ?
“तुम यहाँ अकेले रहते हो या किसी के साथ?” उसने पूछा.
“नहीं मैं अकेला रहता हूँ लेकिन मेरे घर पर लड़कियों को लाने का पर्मिशन नहीं है।” मैंने जवाब दिया।
वो थोड़ा सा मुस्कुराई और बोली- तुम्हें मेरे फ्लॅट पे चलने में तो कोई दिक्कत नहीं है? या किसी से पर्मिशन तो नहीं लेनी?
और बहुत ज़ोर से हंसी।
मैं झेंप कर रह गया।
उसने कहा- चलो मेरे घर पे चलते हैं, वहीं पे पार्टी करेंगे और खूब मजे करेंगे।
मैं एक बात यहाँ आप को बता दूँ कि हमने अपना मिलना ऐसे दिन फिक्स किया था कि हम दोनों का साप्ताहिक अवकाश था उस दिन और उसके एक दिन बाद भी। आपको बता दूँ कि बहुराष्ट्रीय कम्पनी में 2 दिन का साप्ताहिक अवकाश होता है।
“तुम्हें रात में मेरे घर पे रुकने में कोई परेशानी तो नहीं है?” उसने फिर मुझसे पूछा।
मैंने नहीं में उसको जवाब दिया और हम निकल गए उसके घर के लिए।
रास्ते में हमने खाने पीने का ढेर सारा समान लिया और फिर उसके घर जाने के लिए हमने ऑटो लिया और चल दिये अपनी मंज़िल की तरफ।
मैंने उससे पूछा- तुम ड्रिंक करती हो?
उसने ना में जवाब दिया।
लेकिन दूसरे ही पल उसने कहा- आज ट्राई करूँ क्या?
“तुम ड्रिंक करते हो?” उसने पूछा।
मैंने कहा- मैं केवल बीयर पीता हूँ.
तो उसने कहा- ठीक है, फिर आज बीयर ले चलते हैं. अगर मैं नहीं पी पायी तो तुम पी लेना।
मुझे उसकी बात अच्छी लगी और मैंने ऑटो को एक वाइन शॉप पे रुकने को कहा। मैंने जाकर वहाँ से 2 बीयर और एक रेड वाइन की बोतल ले ली और ऑटो में आकर बैठ गया।
कुछ ही देर में हम उसके घर पहुँचे. क्या घर था उसका जहाँ रहती थी वो … एकदम आलीशान।
उसने वो पूरा घर ही किराए पर ले रखा था.
खैर उसका घर कुछ यूँ था कि घर में घुसते ही एक छोटा कमरा जहाँ शू रेक था; उसके बाद एक बड़ा सा ड्राईंग रूम जहाँ से तीन तरफ का रास्ता था, एक बेडरूम का, एक रसोई का और एक स्टोररूम का। घर में घुसते ही एक सीढ़ी ऊपर जाती थी।
हम घर में गए. ड्राईंगरूम में एक बड़ा सा सोफा लगा था, उस पर जाकर बैठ गए.
फिर कुछ देर बाद उपासना उठी और सारा समान फ्रिज में और रसोई में सेट किया और फिर दोनों के लिए पानी और चाय बना कर लायी.
मैंने पूछा- तुम इतने बड़े घर में अकेले रहती हो, तुम्हें डर नहीं लगता?
उसने कहा- नहीं, डर कैसा? बल्कि मुझे तो यहाँ अकेले रहने में मज़ा आता है. जैसे पूरे घर में मैं अकेली और सब कुछ मेरा, जैसे जी चाहे रहो, जब जो जी चाहे करो; कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं।
मैं तो उसके इस उत्तर से एक पल के लिए स्तब्ध रह गया और उसको एकटक देखने लगा।
उसने कहा- क्या हुआ?
मैं कुछ नहीं बोला।
फिर उसने बताया- मेरी फॅमिली बहुत बड़ी है और जब कोई मुझसे मिलने आता है घर से तो उसके साथ काफी लोग आते हैं तो 1 या 2 रूम कम पड़ते है इसलिए मैंने बंगला ही किराए पर ले लिया।
अब तक हम चाय खत्म कर चुके थे, फिर वो उठी और बर्तन रसोई में रख आई और बोली- मैं चेंज कर के आती हूँ।
करीब बीस मिनट बाद वो आई। एक दम अलग लग रही थी मैं तो सोचने लगा कि इसके कितने रंग हैं; जब भी मिलती है एक नए रंग के साथ।
इस वक़्त वो एक गाउन में थी हलके नारंगी रंग के और पूरी की पूरी सजी हुई … जैसे उसे किसी पार्टी में जाना हो.
मैंने उसे पूछा- ये क्या है?
तो उसने कहा- क्यों पार्टी नहीं करनी क्या?
मैंने कहा- हाँ करनी तो है लेकिन उसके लिए इतना सजने की क्या ज़रूरत है? हम कहीं जा थोड़े ही रहे हैं, घर पे ही तो पार्टी करनी है।
वो हंसी और कहा- पार्टी कहीं भी हो, फील पूरी पार्टी वाली ही आनी चाहिए।
उस वक़्त उसे देख कर मैं तो अपना आपा ही खोने लगा था.
खैर कैसे भी मैंने अपने आप को संभाला और कहा- फिर मेजबान और मेहमान दोनों तैयार हैं तो शुरू करें पार्टी?
उसने कहा- यहाँ नहीं।
“फिर कहाँ, कहीं और चलना है क्या?” मैंने पूछा.
कहानी जारी रहेगी.
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