फिर एक अहिल्या – 2

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

फिर एक अहिल्या – 1

फिर एक अहिल्या – 3

लड़की की शादी में अचानक ढेरों काम ऐसे निकल आते हैं जिनका पहले से पता नहीं होता, जिनकी कोई तैयारी नहीं होती.

सात बजते- न बजते किसी को ध्यान आया कि अभी तक फ़्लोरिस्ट दोनों जय-मालायें समेत मिलनी वाले हार नहीं दे कर नहीं गया है. दुल्हन की मां ने ‘अभी तक जय-मालाएँ नहीं आयीं हैं, कुछ कीजिये.” का नारा मुझे सुना कर अपने कर्तव्य की पूर्णाहूति दे ली.

अब शादी प्रिया की हो रही थी, मेरे शहर में हो रही थी ऊपर से मेरी रहनुमाई में हो रही थी और मैंने अपने जान-पहचान वाले फ़्लोरिस्ट से जय-मालाएं और बाकी हार बुक किये थे, इसलिए अब यह कार-सेवा तो मुझे ही करनी थी.
मैंने आनन-फ़ानन गाड़ी उठायी और फ़्लोरिस्ट की तरफ निकल पड़ा.

अभी मैं फ़्लोरिस्ट को जय-मालाएँ लेकर पैसे दे ही रहा था कि ब्यूटी-पार्लर से वसुंधरा का मैसेज आ गया. मैं लगभग उड़ता हुआ ब्यूटी-पार्लर पहुंचा. वहां पहुँच कर जैसे ही मैंने एक बार हॉर्न बजाया, तत्काल वसुंधरा ब्यूटी-पार्लर से बाहर निकल आयी. मैंने वसुंधरा की ओर देखा. हे भगवान! ये मैं क्या देख रहा था? या तो मैं पहले अंधा था या अब हो गया था. वसुंधरा का तो कायाकल्प हो गया था.

ढ़ाई-तीन इंच ऊँचे जूड़े पर पिन की हुई ओढ़नी के साथ लगभग 5’9″ की दिख रही वसुंधरा साक्षात रति का अवतार लग रही थी.
चेहरे के दोनों तरफ़ कन्धों तक लहराती दो घूँघरदार काली लटें, माथे पर सोने का टीका, कमानदार तराशी हुई भवें, पेशानी पर गुलाबी बिंदी के बीच दहकते हुए लाल रंग की बिंदी, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आंखें, गुलाबी कपोल, गुलाब की पंखुड़ी जैसे तराशे हुए सुडौल होंठों पर गहरी लाल रंग की लिपस्टिक, रोम-विहीन दोनों बाजुओं में भरी-भरी लाल-गुलाबी चूड़ियाँ, दोनों हाथों पर ताज़ी लगी मेहँदी, सभी नाखूनों पर गुलाबी नेल पॉलिश, जड़ाऊ काम और डीप-कट वाली बेबी-पिंक गुलाबी चोली पहने, जिसमें वसुंधरा के दोनों उरोज़ असाधारण तौर पर उन्नत प्रतीत हो रहे थे.

भारी सलमा-सितारों से झिलमिलाती बेबी-पिंक चुनरी पर दबके के काम वाले प्योर सिल्क के बेबी-पिंक लहंगे और लाल-गुलाबी तिल्ले की कढ़ाई वाली पिंक रंग की बिना हील की फ़्लैट बैली में, मेरे अंदाज़े मुताबिक़ 38-28-38 फ़िगर के साथ अपने दोनों हाथों से अपने कूल्हों के दोनों तरफ से एक ऊंगली और अँगूठे की चुटकियों में लहंगा थोड़ा ऊपर उठाये एक मुजस्सिम हुस्न की मल्लिका अपनी शाही चाल से मेरी ओर बढ़ी चली आ रही थी और मैं टिकटिकी लगाए वसुंधरा को निहार रहा था.

अब पता नहीं एक मिनट बीता या एक घंटा या एक युग. जरूर योग में ऐसी ही अवस्था को समाधि कहते होंगे जहां ना खुद की खबर होती है, न जग की. जहां योगी परम-आनंद में लिप्त रहता है, न दीन, न दुनिया … न दुःख, न सुख … न आत्मा, न परमात्मा … जहां सिर्फ़ आनंद विराजता है … केवल आनंद!

“क्या देख रहे हैं?” मुदित भाव से वसुंधरा ने कार के करीब आकर ड्राइवर साइड थोड़ा झुक कर मुझ से पूछा.
यह एक ऐसा सवाल है जिसका ज़वाब हर स्त्री को पहले से ही अच्छे से पता होता है लेकिन फिर भी वो अपने चाहने वाले से पूछती है … बार-बार पूछती है.
लेकिन यहां तो मैं अपनेआप को वसुंधरा का चाहने वाला भी तस्लीम नहीं कर सकता था.

मेरे परवरदिगार! तू क्यों मुझे बार-बार झंझट में डाल देता है. माना कि दीदार-ऐ-हुस्न की रहमत तो तूने इस नाचीज़ पर दोनों हाथों से लुटाई है लेकिन दीद से तो प्यास जगती है, बुझती नहीं. अब प्यास बुझने की दुआ मांगू तो बेसब्र, लालची और नाशुक्रा कहलाऊँ. अब तो तू ही कोई रास्ता निकाले तो निकले.

“क्या हुआ?” वसुंधरा ने दोबारा शोख़ अदा से पूछा.
वसुंधरा के जिस्म से उठती हुई नशीली गंध मेरे होश उड़ाये दिए जा रही थी.

“आप नहीं समझेंगी.” मैंने हल्का सा उच्छश्वास लेते हुए नोट किया कि ऐसा सुनते ही वसुंधरा की आँखें चंचल हो उठी और होंठों के कोरों पर हल्की सी मुस्कान आ गयी थी. औरतों की छठी इंद्री उन्हें सब बता देती है. मेरी ज़ेहनी हालत की बाबत वसुंधरा को सब कुछ ठीक-ठीक पता था और वो मेरी हालत पर मन ही मन आनंदित हो रही थी.

तभी ब्यूटी-पार्लर के दरबान ने कार की पिछली सीट पर वसुंधरा का पुराने कपड़ों से भरा अटैची-केस रख कर दरवाज़ा बंद कर, फ्रंट का पैसेंजर साइड का दरवाज़ा खोल दिया और वसुंधरा भी कार के आगे से घेरा निकाल कर फ्रंट पैसेंजर सीट पर आ कर बैठ गयी.

वसुंधरा चौदहवीं के चाँद के मानिंद चमक-दमक रही थी लेकिन जैसे चाँद में भी दाग होता है वैसे ही इस मुज्जसिम हुस्न में भी एक कमी थी और वसुंधरा को शायद इसका एहसास नहीं था लेकिन मैंने वो कमी पकड़ ली थी.
वैसे तो वसुंधरा मेहँदी-लगे हाथों से एक उंगली और अँगूठे की चुटकियों से दायें-बाएं से अपना लहंगा उठाये हुए थी लेकिन जैसे ही वो मेरी कार की जलती हेड-लाइट के आगे से गुजरी तो मैंने नोट किया कि वसुंधरा के लहँगे के सामने ज़रा सा बायीं ओर, जहां से लहंगे का नाड़ा बाँधते या खोलते हैं, वो झिर्री कम से कम छह-सात इंच लम्बी थी. आमतौर पर लहंगों की ऐसी झिर्रियों में टिच-बटन या हुक-बटन लगे रहतें हैं जिन्हें सुविधा अनुसार बंद कर लिया या खोल लिया जाता है पर लगता था कि वसुंधरा के लहँगे में कुछ गड़बड़ थी और जैसे ही वसुंधरा अपना दायां पैर आगे बढ़ाती तो वो छह-सात इंच की झिर्री का मुंह खुल जाता जिस से वसुंधरा के बायीं ओर बैठे या खड़े व्यक्ति को वसुंधरा की पेंटी की झलक समेत वसुंधरा की दायीं दूधिया जांघ दूर तक नग्न दिखाई देती, जैसे मुझे दिखाई दी थी.

सूरत-ऐ-हाल बहुत तफ्तीशनाक थी और वसुंधरा को इस का क़तई इल्म नहीं था. ऐसे तो शादी के फ़ंक्शन में वसुंधरा का जलूस निकल जाता जो मुझे मंज़ूर नहीं था.
“ये आपकी मेहँदी?” मैंने वसुंधरा से पूछा.
“साढ़े आठ-पौने नौ बजे धो दूँगी.” मैंने घड़ी देखी, पौने आठ हुए थे.

मैंने तत्काल फैसला ले लिया और कार घर की ओर भगा दी. आन की आन में हम घर पहुँच गए. घर की चाबियां मेरी जेब में ही थी. मैंने मेनगेट का ताला खोला और कार पोर्च में ले जा कर खड़ी की और कार का वसुंधरा वाली साइड का दरवाज़ा खोला और उससे कहा- आइये.
“हम घर क्यों आये हैं … कुछ रह गया क्या?” वसुंधरा ने कार से उतरते हुए उलझन भरे स्वर में पूछा.
“जी! दो मिनट का काम है.”

अब समस्या यह थी कि वसुंधरा की सच्चाई से कैसे अवगत करवाया जाए? तब तक हम ताला खोल कर लिविंग रूम में आ चुके थे. मैं वसुंधरा से आँख नहीं मिला पा रहा था. तभी मुझे एक तरीका सूझा. मैंने अपने बैडरूम के ड्रेसिंगरूम में ड्रेसिंग-टेबल की जगह मैंने एक दीवार पर 6′ x 6’ का आइना लगवाया हुआ था और अगर वसुंधरा उस आईने में खुद को निहारती तो यक़ीनन उस ने अपने लहंगे की उस कमी को पकड़ ही लेना था.

“आइये.” मैंने बैडरूम की तरफ बढ़ते हुए मुड़ कर वसुंधरा से कहा.
“लेकिन … इधर कहाँ?” एकांत में दबंगई और अहंकार का कवच फिर से टूट गया था और एक बार फिर से डरी-सहमी वसुंधरा मेरे रु-ब-रु थी.

“घबराइये नहीं! प्लीज़ आइये.” मेरे लफ़्ज़ों में बला का आत्म-विश्वास पा कर वसुंधरा बिना कुछ बोले मेरे पीछे-पीछे मेरे बैडरूम में आ गयी. ड्रेसिंगरूम में आ कर मैंने ड्रेसिंगरूम की सभी लाइट्स ऑन कर दी और वसुंधरा को बहुत आहिस्ता से कंधे से पकड़ कर आईने के सामने कर दिया.
“मैं बेडरूम में हूँ, आप यहां खुद को अपनी ही पारखी नज़र से एक नज़र निहारिये, ख़ास तौर पर अपने लहंगे को आगे से … बायीं ओर से. ” कह कर मैं बाहर निकल आया.
एक मिनट में ही वसुंधरा ड्रेसिंगरूम से बेडरूम में आ गयी.
“अब क्या करें?” एक डरी-सहमी सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी.

ये सवाल ही बताता था कि वसुंधरा ने लहंगे की कमी पकड़ ली थी. मैंने नज़र उठा कर देखा तो वसुंधरा की नज़रें अपने ही पैरों पर थी. सारे हालात पर गौर करने के बाद यक-बा-यक मेरी हंसी छूट गयी. वसुंधरा ने चौंक कर सर उठाया और गिला करती आँखों से मेरी ओर देखा.

“आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं?” शिकायती लहज़े में वसुंधरा ने मुझ से पूछा.
” न … न वसुंधरा जी! बिल्कुल नहीं. दरअसल मुझे हँसी इस बात पर आयी कि इस सब में … न तो गलती आप की, न ही मेरी और हम दोनों एक दूसरे से आँखें चुरा रहे हैं … भगवान् जाने क्यों. बस! यही सोच कर मुझे हंसीं आ गयी.” अचानक ही सारा वातावरण सहज़ हो गया और वसुंधरा के होठों पर भी मुस्कान आ गयी.

“आप के पास कोई दूसरी फ़्रेश ड्रेस है?” मैंने पूछा.
“शादी के फ़ंक्शन में पहनने लायक तो नहीं.”
“ओके! तो इसी को ठीक करना होगा. आप एक काम कीजिये! मैं बाहर जाता हूँ … आप कैसे भी कर के अपना लहंगा उतार कर मुझे बाहर दे दीजिये, मैं सीऊंग मशीन पर इसको दो सिलाइयाँ मार देता हूँ , आप पहनिए और फिर हम चलें.” कह कर मैं बैडरूम से बाहर आ गया. मुझे पता था कि सुधा अपनी सिलाई-मशीन बच्चों के कमरे में रखती है. दो सीधी सीधी सिलाइयाँ हो तो मारनी हैं, इसमें कौन सी रॉकेट-साइंस है.

लेकिन अभी तक तो लहंगा भी बाहर नहीं आया था.
“वसुंधरा जी! सब ठीक है?” मैंने बाहर से गुहार लगाई.
“आप एक मिनट! ज़रा अंदर आयें … प्लीज़!” वसुंधरा की धीमी सी इल्तज़ा मुझे सुनाई दी.
मैंने झिझकते-झिझकते बैडरूम में कदम रखा. वसुंधरा परेशान सी मेरी ओर पीठ कर के खड़ी थी और अभी पूरे कपड़ों में ही थी.
“जी … कहिये?”

हुआ क्या था कि जल्दी-जल्दी करने की हड़बड़ी में वसुंधरा ने लहंगे के नाड़े में गाँठ लगा ली थी. एक तो उसके हाथों में मेहँदी लगी हुई थी, ऊपर से लहंगे का नाड़ा रेशमी. जैसे-जैसे वसुंधरा ने जोर लगा कर नाड़ा खोलने की कोशिश की, वैसे-वैसे गाँठ और कसती गयी और अब तो हालात पूरी तरह वसुंधरा के काबू से बाहर हो गए थे.

मैंने मामले की नज़ाकत समझी और वसुंधरा के निकट एक घुटना ज़मीन पर टेक कर बड़े सब्र से, धीरे-धीरे एक-एक रेशा खींच कर नाड़े की गाँठ खोलनी शुरू की. वसुंधरा तो अपने दोनों हाथों पर ताज़ी मेहँदी लगी होने के कारण मेरी कुछ भी मदद करने में सर्वथा असमर्थ थी.
बीच में मैंने दो-एक बार सर उठा कर ऊपर देखा तो वसुंधरा की आँखों को बंद पाया. यदा-कदा मेरी उंगलियां वसुंधरा की नंगी कमर को छू जाती तो मेरे और वसुंधरा के पूरे बदन में कंपकपी की एक लहर दौड़ जाती.

मेरी आँखों की सीध में तीन-चार इंच दूर वसुंधरा की नाभि थी. मैंने नोट किया कि वसुंधरा का पूरा गोरा पेट बिल्कुल सपाट और अंदर को धंसा हुआ था, जरूर वसुंधरा नियमित तौर पर जिम जाती थी या प्राणायाम जैसा कोई योगा करती थी, नहीं तो … कोई नियमित कसरत नहीं करने वाले पतले लोगों में भी अक्सर नाभि के नीचे पेट थोड़ा सा बाहर को निकला ही रहता है.
हल्के रेशमी रोमों की एक रेखा वसुंधरा की नाभि से नीचे की ओर बढ़ती हुई लहंगे के नाड़े के नीचे जाकर अदृश्य हो गयी थी. अचानक ही मेरे मन में एक वहशी ख़्याल आया कि आज वसुंधरा ने वैक्सिंग करवाते हुए क्या प्यूबिक एरिया की वैक्सिंग भी करवाई होगी या नहीं?

वसुंधरा की बालों रहित योनि का तस्सवुर करते ही अचानक से मेरे लिंग में भयंकर तनाव आ गया. मैंने अचकचा कर ऊपर देखा तो पाया कि वसुंधरा की आँखें तो अभी भी बंद ही थी, उल्टे अब तो वसुंधरा की सांसें भी कुछ-कुछ भारी हो चली थी और उस का निचला होंठ रह-रह कर लरज़ रहा था.

उसके जिस्म से उठती सौंधी-सौंधी मादक सी ख़ुश्बू मेरी कल्पना की परवाज़ को किसी और ही धरातलों पर लिये जा रही थी. दो सुलग़ते हुऐ जवां ज़िस्म, ये नज़दीकियां और सबसे क़ातिल तो यह तन्हाई … आसार अच्छे नहीं थे.
मैंने और वसुंधरा दोनों ने इस बाबत एक-दूजे से एक भी लफ़्ज़ सांझा नहीं किया था लेकिन आदिमकाल से चली आ रही आदम और हव्वा की एक-दूजे के लिए प्यास, एक-दूजे से बराबर राब्ता कायम किये हुए थी और दोनों जिस्मों को अपनी-अपनी जरूरतों का अच्छे से पता था. पर हम मानव, सभ्य समाज में रहते हैं और समाज की कुछ वर्जनायें, कुछ बंदिशें होती हैं जोकि सबको माननी ही पड़ती हैं. सारे घर वाले शादी अटेण्ड करने को होटल में, घर का मालिक बंद घर में … घर की मेहमान स्त्री के साथ बैडरूम की गहन तन्हाई में, मेहमान स्त्री के लहंगे का नाड़ा खोल रहा हो तो कोई क्या समझेगा? तत्काल मेरी तमाम काम-विकलता जाती रही.

हे दाता! ये किस झँझट में फंस गया मैं? अब तो यहां से जल्दी से जल्दी निकल भागने में ही भलाई थी पर नाड़े की गाँठ तो अभी भी नहीं खुली थी.
“वसुंधरा!” मैंने उसको पुकारा और बेख़ुदी ऐसी कि मैं उसके उस के नाम के साथ ‘जी’ लगाना ही भूल गया.
“जी!” पल भर में ही सपनों की दुनिया से वसुंधरा भी तत्काल हक़ीक़त के कठोर धरातल पर आ गयी.
“ये तो इशू हो गया है, नॉट तो खुल ही नहीं रही … क्या करें?”

“ऑप्शंस?” वसुंधरा का तेज़ दिमाग अपनी पूरी बानगी में आता जा रहा था.
“ऑप्शंस भी लिमिटेड ही हैं “. मैं तेज़ी से दिमाग दौड़ा रहा था. किसी भी क्षण होटल से कोई आ सकता था, सुधा या किसी और का फ़ोन आ सकता था.
” लाईक?”
“चेंज द ड्रैस ”
“रुल्ड-आउट!”
“कीप ऑन ट्राइंग टू अन-डन दी नॉट.”
“से समथिंग बैटर देन दैट.”
“फिर तो एक ही चारा बचा है और मुझे पता नहीं कि यह आप को पसंद आएगा या नहीं. ” मैंने झिझकते-झिझकते कहा.
“अरे! बोल भी दीजिये …” आवाज़ में सत्ता की गूंज बराबर थी.
“नाड़ा काट देते हैं, लहंगा रिपेयर कर के नया नाड़ा डालते हैं और चलते हैं. कुल पांच मिनट का काम है. कहिये! क्या कहती हैं आप?”

क्षणभर के लिए जैसे सारी कायनात में चुप्पी सी छा गयी.
“यू श्योर दैट्स द बेस्ट आईडिया वी हैव?”
“अनटिल यू सज़ेस्ट समथिंग बैटर!”

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