फिर एक अहिल्या – 3

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

फिर एक अहिल्या – 2

फिर एक अहिल्या – 4

“फिर तो एक ही चारा बचा है और मुझे पता नहीं कि यह आप को पसंद आएगा या नहीं.” मैंने झिझकते-झिझकते कहा.
“अरे! बोल भी दीजिये …” आवाज़ में सत्ता की गूंज बराबर थी.
“नाड़ा काट देते हैं, लहंगा रिपेयर कर के नया नाड़ा डालते हैं और चलते हैं. कुल पांच मिनट का काम है. कहिये! क्या कहती हैं आप?”

क्षणभर के लिए जैसे सारी कायनात में चुप्पी सी छा गयी.
“यू श्योर दैट्स द बेस्ट आईडिया वी हैव?”
“अनटिल यू सज़ेस्ट समथिंग बैटर!”

वसुंधरा ने सारे हालात पर कुछ क्षण सोचा, फिर बोली- नया नाड़ा कहाँ से मिलेगा? नाड़ा कौन काटेगा? आप रिपेयर कर के मुझे लहंगा कितने समय में लौटायेंगे? मैं लहंगे के बिना कहाँ रहूंगी?”
हे भगवान्! फिर से वही पुरानी सड़ियल वसुंधरा जागने क़ो थी.

“नया नाड़ा तो मैं अभी अपने वॉर्डरोब में से निकाल लाता हूँ और साथ में कैंची भी. मैं खुद बैडरूम से बाहर चला जाता हूँ. आप अपने लहंगे के नाड़े की गाँठ काट दें और अपना लहँगा ज़मीन पर ही छोड़ कर ड्रेसिंगरूम में चली जाएँ और मुझे वहीं से आवाज़ दें. मैं आकर नया नाड़ा और आपका लहंगा उठा कर ले जाऊंगा, बच्चों के कमरे में जा कर लहंगे पर सुइंग मशीन से दो सीधी सलाईयां मार कर, नया नाड़ा लहंगे में पिरो कर, लँहगा बैडरूम में रख कर कर वापिस बाहर चला जाऊंगा. आप अपना लहंगा पहनिये और हम दोनों ख़ुशी-ख़ुशी वापिस.”

“नहीं नहीं! मेरे तो हाथों में मेहँदी लगी हुई है, मैं कैंची कैसे हैंडल करुँगी, नाड़े की नॉट कैसे बांधूगी?” वसुंधरा ने सवाल दागे.
” तब तो एक ही चारा है.”
” न न … बिल्कुल नहीं.” मेरा मंतव्य समझ कर वसुंधरा कुछ-कुछ विरोध-भरे स्वर में बोली, हालांकि उस विरोध में ‘न’ की मात्रा तो बस नाममात्र ही थी.
“तो आप ही बताएं … क्या करें?” इसके आगे बहस बंद थी क्योंकि इस बात का कोई जवाब था ही नहीं.

मैंने वॉर्डरोब से कैंची उठायी और सुधा के एक सूट की सलवार में से नया नाड़ा खींच कर अपने कंधे पर लटकाया और वसुंधरा के सामने आ खड़ा हुआ.

“आप अपनी आखें बंद कीजिये पहले!” वसुंधरा ने मेरी आँखों में देखते हुए कहा.
“अरे! कमाल करती हैं आप! मुझे कैंची चलानी है और आप हैं कि मुझे आखें बंद करने को कह रही हैं, आखें बंद करके मैं नाड़ा कैसे काटूंगा? कहीं कैंची आपको लग गयी तो?”
” तो … तो मैं क्या करूँ? ऐसे तो मुझे शर्म लगती है.” अपनी आला ज़ेहनी-कूव्वत से दुनिया-जहान की सिटी-पिट्टी गुम कर देने वाली एक पढ़ी-लिखी, आला दिमाग की मालिक़, वॉइस-प्रिंसिपल साहिबा को अपनी छोटी सी समस्या का कोई कारआमद हल नहीं सूझ रहा था.

इधर काम-संवेदनाएँ फिर सिर उठाने लगी थी और मेरे लिंग में फिर से तनाव आना शुरू हो गया था.

“आप ऐसे करें कि आप अपनी आँखें बंद कर लें और मुझे अपना काम करने दें.” कह कर मैंने अपने बाएं हाथ से वसुंधरा के लहंगे के नाड़े को उठा कर जरा सा अपनी ओर खींचा ताकि लहंगे का नाड़ा, गिरह के एकदम पास से कैंची के खुले मुंह की निचली बाजू और कैंची की ऊपर वाली बाजू के बीच में आ जाए लेकिन इस चक्कर में वसुंधरा बिल्कुल ही मेरे साथ आ सटी.

वसुंधरा के गर्म जनाना जिस्म से उठती गर्मी को मैं अपने पूरे शरीर में महसूस कर रहा था. वसुंधरा के तने हुये दोनों उरोजों के बीच की घाटी मेरी नासिका से ऐन नीचे थी. मेरे पूरे बाएं बाज़ू को वसुंधरा के शरीर ने दबा रखा था. बायीं बाज़ू पर, कंधे से थोड़ा नीचे वसुंधरा के उरोजों का अतिरिक्त दवाब पड़ रहा था. अब चूंकि मेरे बाएं हाथ ने लहंगे के नाड़े वाला हिस्सा छोड़ दिया था तो मेरा बायां हाथ लटक कर वसुंधरा की दोनों जांघों के बीच आ गया था और मैं अपनी बायीं हथेली के पृष्ट भाग पर वसुंधरा की योनि से निकलती ऊष्मा स्पष्ट महसूस कर रहा था.

मैंने देखा कि वसुंधरा के जिस्म के सारे रोएं अचानक ख़ड़े हो गए थे. वसुंधरा के चेहरे की ओर देखा तो पाया कि वसुंधरा की दोनों आँखें बंद थी, भृकुटि में हल्की सी एक सिलवट थी, लिपस्टिक लगे होंठों में रह-रह कर थरथराहट हो रही थी. मेहँदी-रचे दोनों हाथों से दोनों साइडों पर अंगूठे और तर्जनी की चुटकियों में से लहँगा रह-रह कर छूट-छूट सा जा रहा था और उसके पूरे जिस्म में बार-बार एक झुरझुरी सी उठ रही थी.

माना कि साफ़ साफ़ ‘हाँ’ नहीं थी लेकिन साफ़ साफ़ ‘न’ तो बिल्कुल भी नहीं थी और आधी-अधूरी ‘न’ तो नखरे वाली ‘हाँ’ ही होती है … यह मैं जानता था.

देवराज इन्द्र के दरबार की इक प्यासी अप्सरा, किसी अंजाम की परवाह किये बिना, वर्जित फल चखने को कमर कसे बैठी थी लेकिन मेरे खुद के कुछ जुदा मुद्दे थे.

पहली बात! यह समय ठीक नहीं था, कम से कम आज के दिन तो ऐसा कुछ होना ठीक नहीं था. आज मेरी प्रिया की शादी थी और मेरी पहली आकांक्षा प्रिया की ‘शादी में सबकुछ ठीक-ठाक रहे’ की थी और मेरे जाती नज़रिये से आज के दिन ऐसा कुछ होना ठीक नहीं था.
दूजे! यह मौका ही ठीक नहीं था, प्यार सहज़ भाव से किया जाता है और जल्दी-जल्दी योनि-भेदन कर स्खलित होना तो निरी पशुता है.
तीसरी बात! जैसे बिना नारी की सहमति के, नारी शरीर भोगना बलात्कार होता है वैसे ही बिना प्यार के किसी भी नारी-शरीर को भोगना भी केवल वासना है, वो भी निकृष्ट वासना. ऐसी वासना का अंत हमेशा पछतावा होता है और मैं पछताना तो हर्गिज़ नहीं चाहता था.

मैं एक कदम पीछे हटा, तत्काल वसुंधरा ने आँखें खोली और मुझे सीधे अपनी आँखों में झांकते पा कर झट से अपनी आँखें वापिस बंद ली.
“आप बहुत कठोर हैं.” अधमुंदी आँखों वाली यूनानी मूर्ती के तराशे हुए होंठों ने मेरे कानों के करीब सरगोशी सी की.
“कठोर नहीं, मज़बूर!” मैंने कहा.
“मज़बूर … कैसे?” वसुंधरा ने चौंक कर आँखें खोली और सीधे मेरी आँखों में झांका.
“आप नहीं समझेंगी.” कहते हुए मैंने लहंगे का नाड़ा काट दिया.

बस! कयामत ही बरपा हो गयी. ज़रुर वसुंधरा ने साइडों से अपना लहँगा ढीले हाथों से पकड़ रखा होगा, नाड़ा कटते ही लहँगा वसुंधरा के पैरों में ऐसे गिरा जैसे किसी मूर्ति के अनावरण समारोह में मूर्ति का पर्दा नीचे गिरता है.

वसुंधरा की केले के पेड़ के तने सी चिकनी दोनों टाँगें और घुटनों के ऊपर दो मरमरी दूधिया जांघें, दोनों जाँधों के ऊपरी जोड़ पर छोटी सी, गुलाबी जाली वाली साटन की डिज़ाईनर पेंटी जिस के जाली के बाद वाले गुलाबी साटन के कपड़े में ठीक बीच में से उठे हुए धरातल का एक त्रिभुज का आकार और उसके बीचों-बीच से शुरू होकर एक नीचे की ओर घुमाव लेती एक रेखा … सबकुछ साफ़-साफ़ नुमाया हो रहा था.

वसुंधरा का छोटी सी पेंटी के इलास्टिक तक सपाट और साफ़-सुथरा गोरा पेट और पेंटी के इलास्टिक के बाद जाली में से झलक दिखाती कुंदन सी साफ़-सुथरी गोरी त्वचा इस बात की चीख-चीख कर गवाही दे रही थी कि वसुंधरा ने आज प्युबिक एरिया की भी वैक्सिंग करवाई है.

इस लहंगा गिरने वाले हादसे पर क्षण भर के लिए वसुंधरा ने अपनी आँखें खोली और मेरी आँखें अपने तन के निचले भाग (जोकि करीब-करीब निर्वस्त्र था) पर जमी पाकर फ़ौरन दोबारा बंद कर ली और जल्दी से मेरी तरफ़ पीठ कर ली.

वसुंधरा का इस तरह मेरी तरफ़ पीठ करना तो और भी कहर बरपाने वाला साबित हुआ. वसुंधरा की हवा में झूलती ओढ़नी, जो उसके जूड़े के साथ पिन की गयी थी, वसुंधरा के तेज़ी से गोल घूमने के कारण बार-बार दाएं-बाएं हो रही थी और इसी प्रक्रिया में वसुंधरा के आकर्षक, भरे-भरे और करीब-करीब अनावृत, गोरे-चिट्टे नितम्बों की मुझे रह-रह झलक मिल रही थी.

उसकी छोटी सी पेंटी की बैक-स्ट्रिंग तो दोनों नितम्बों की दरार में घुसी हुई थी.
“सी..ई..ई..ई … ई … ई … ई … ई … ई!!” अनजाने में ही मेरे मुंह से एक तीख़ी सिसकारी निकल गयी. तीव्र कामोत्तेजना के कारण मेरे लिंग में भयंकर तनाव आ गया था. हालांकि वसुंधरा की पीठ थी मेरी ओर लेकिन उसे इस बात का बाखूबी अंदाज़ा था कि मेरे ज़ेहन पर क्या गुज़र रही थी.

मेरी हस्ती अब आकण्ठ संकट में थी. कामदेव मुझ पर रह-रह कर काम-बाण चला कर मुझे पीड़ित किये जा रहे थे और वसुंधरा साक्षात मेनका के समकक्ष मुझ से रति-दान लेने पर उतारू थी और मैं बेचारा, काम के इस भयावह बवण्डर में तिनके की तरह कभी इधर (कभी हाँ), कभी उधर (कभी न) डोल रहा था.

शारीरिक भूख एक चीज़ है और प्यार बिल्कुल दूसरी चीज़. वसुंधरा से प्यार करने जैसी भावना तो अभी तक मेरे मन में थी नहीं और रही बात शारीरिक भूख की … तो मैं शादीशुदा आदमी इस लानत से कोसों परे था लेकिन वसुंधरा के कुंदन से दमकते जिस्म की शोख़ कशिश … वक़्ती तौर पर इतनी प्रबल थी कि मेरे सारे असूल एक ही झटके में तिनकों की तरह छिन्न-भिन्न हो रहे थे. अब तो मुझे यह डर सताये जा रहा था कि कहीं मैं खुद ही भूखे भेड़िये की तरह वसुंधरा पर टूट ना पडूँ.

“हे परवरदिगार! तू ही कोई चमत्कार कर … अब तो तू ही मुझे, मेरी अपनी नज़रों में गिरने से बचा सकता है.”
और फिर चमत्कार ही हो गया, मालिक ने मेरे दिल से उठी दुआ कबूल कर ली. मेरे सेल की घंटी बज़ी. सुधा लाइन पर थी.
“कहाँ हो आप?”
“वसुंधरा जी को ले आने के लिए ज़रा सा डायवर्ट होना पड़ा … बस आ ही रहा हूँ.”
“जल्दी कीजिये … उधर से बारात चल पड़ी है.”
“दस-पंद्रह मिनट में पहुंचा … बस.”

कामविह्ल मन थोड़ा ठिकाने आया और रूह को ज़रा सा क़रार आया, उधर वसुंधरा भी लपक कर ड्रेसिंग रूम में चली गयी थी. मैंने लहंगा उठाया और जैसे-तैसे उस को रिपेयर किया और नया नाड़ा पिरो के वापिस बैडरूम में ले आया. वसुंधरा अभी भी ड्रेसिंगरूम में ही थी.
“वसुंधरा जी!” मैंने हल्के से वसुंधरा को पुकारा.
“जी!” तत्काल ड्रेसिंगरूम से वसुंधरा की प्रतिक्रिया आयी.
“आप का लहंगा … लीजिये, संभालिये.”
मैंने लहंगा कुर्सी पर रखा और बाहर जाने के लिए मुड़ा.
“सुनिए!” वसुंधरा की आवाज़ आश्चर्यजनक रूप से कोमल थी.
“जी! ” जाते जाते मेरे कदम थमे.
“मेरे हाथ … मेहँदी … मैं … कैसे नाड़ा … ” कुछ टूटे-फूटे लफ़्ज़ मुझे सुनाई दिए लेकिन मैं उन का मतलब समझ गया.
“ओके … आइये.”

वो दिलक़श नज़ारा आज भी मेरी आखों के सामने मूर्त हो उठता है.

उजला माथा, सुतवां नाक, गुलाब की पंखुड़ियों से तराशे होंठ, लम्बी गर्दन, बेहद उन्नत गोरा वक्ष और नाभि से छह इंच ऊपर तक बेबी-पिंक रंग की चोली पहने, जूड़े पर वही भारी जुड़ाऊ काम वाली चुनरी पिन किये हुए, दोनों जाँघों के जोड़ को मुश्किल से ढक पा रही नन्ही सी गुलाबी पेंटी, केले से तने सी पुष्ट और रोम-रहित सुडौल टाँगें, शर्म से झुकी नीची नज़र के साथ जैसे अजन्ता की कोई मूरत बेहद सधे हुये क़दमों से मेरी ओर बढ़ी चली आ रही वसुंधरा सर झुका कर मुझ से नज़र चुराते हुए मुझ से दो कदम दूर आकर ठहर गयी.

एक नशीली सी, होश उड़ा देने वाली सुगंध उस के शरीर से फ़ूट रही थी. मुझ पर फिर से एक बेख़ुदी सी तारी होने लगी. एक बार फिर से कामदेव ने मुझ पर आक्रमण कर दिया था और एक बार फिर से मेरे कामध्वज में कामज्वाला का प्रवेश हो गया था लेकिन इस बार मैंने विवेक का दामन हाथ से नहीं जाने दिया.

“आप उधर कुर्सी पर बैठ जाएँ और मैं लहंगा आप के पैरों में रख देता हूँ. आप अपने दोनों पैर उठा कर लंहगे के बीच में रख दीजिये और खड़ी हो जाएँ और मैं लहंगा ज़मीन से उठा कर आपकी कमर तक लाकर एडजस्ट कर के नाड़ा बाँध देता हूँ … ठीक है?”
वसुंधरा ने सर नीचा किये-किये ‘हाँ’ में सर हिलाया, अपने पैरों से बैली उतारी और जाकर कुर्सी पर बैठ गयी. मैंने लहंगा गोल करके, कुएं की सी शेप बना कर कुर्सी के आगे ज़मीन पर वसुंधरा के पैरों के पास रखा और हाथ बढ़ा कर वसुंधरा के दोनों पांव उठा कर लहंगे के बीचोंबीच रख दिए.

वसुंधरा के पैरों के तलवे गहरे गुलाबी रंग के, गद्दीदार और वलय वाले थे और पैरों की सारी उंगलियां रोमरहित एवं समानुपात में थी. वात्सायन के अनुसार ऐसे पैरों वाली स्त्रियां बौद्धिक रूप से अत्यंत विकसित, प्राकृतिक तौर पर संकीर्णयोनि अर्थात तंग योनि वाली, पति को सुख देने वाली प्राण-प्रिया और उत्तम संतान को जन्म देने वाली होती हैं.

कहानी जारी रहेगी.
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